क्लीनिकल थर्मोडायनामिक्स
(CLINICAL THERMODYNAMICS)
: एक विचार:
अमर नाथ मुखर्जी
हम सभी पहले से ज्ञात है कि जाड़े में सर्दी, खांसी, फ्लू, ब्रोंकाइटिस, निमोनिया, कोल्ड डायरिया, हार्ट अटैक (हृदयाघात), सेरिब्रल अटैक (लकवा) आदि शारीरिक समस्यायें बहुतायत बढ़ जाती है। इस प्रश्न पर विचार करते हुए मेरे मन मे कुछ सम्भावित उत्तर आए और ये उत्तर ही मेरी इस रचना का सूत्रपात हैं। भले ही मेरे इन विचारों से कुछ लोग सहमत न हो फिर भी हमारा अनुरोध है कि इस लेख को पढ़कर निम्नलिखित वास्तविकता पर विचार जरूर करें, जो हैं :
(1) हमारे शरीर को दो मूल्यवान वस्तु देकर प्रकृति ने हमें इस संसार में भेजा है -
- प्रथमतः, हमारे शरीर का तापमान, जो साधारणतया 98.6°F या 37°C पर संतुलित रहते हुए लगातार शरीर को ऊर्जा दे रहा है।
- द्वितीयतः, हमारी त्वचा है जो सतर्क प्रहरी की तरह हमें सदा संरक्षण देती है और बताती है कि हमारे शरीर के तापमान में उतार-चढ़ाव हो रहा है, अर्थात् शरीर में से ताप (गर्मी) बाहर निकल रहा है या अन्दर आ रहा है, और उसी के इशारे से हम जाड़े में कोट- स्वेटर आदि पहनते हैं या गर्मी में बनियान पहनकर पंखे का हवा उपभोग करते हैं।
इस सन्दर्भ पर तुलनात्मक रूप से ये कहा जा सकता है कि शरीर का तापमान और पानी का स्वभाव आपस में बहुत कुछ मिलता जुलता है। जिस तरह पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है उसी प्रकार हमारे शरीर का तापमान भी ऊपर से नीचे की ओर जाता है। चलने की गति में पानी को अगर कोई सुराख (छेद) मिले तो वहाँ से तुरंत निकलने लगता है, उसी प्रकार जाड़े में शरीर के कोई भी अंग खुला रह जाने पर वहीं से शरीर का ताप निकल जाता है और फलस्वरूप वहीं से शारीरिक तापमान का क्षरण भी शुरू हो जाता है।
शारीरिक तापमान कम होने पर हमारा शक्तिशाली लड़ाकू सैनिक यानी, ताप (गर्मी), जो शरीर में कहीं संक्रमण (इन्फेक्शन) अथवा सूजन (इन्फ्लामेशन) होने पर तुरन्त वहाँ पहुँच जाता है, वह कमज़ोर पड़ जाता है।
ताप (गर्मी) बढ़कर जबतक बाहरी शत्रुओं को नष्ट नहीं कर देता तबतक उससे लगातार लड़ता रहता है। शत्रु पुरी तरह से नष्ट हो जाने के बाद हमारे शरीर का बढ़ा हुआ ताप कम होकर पुन: सामान्य तापमान 98.6°F/37°C पर आ जाता है। हालाँकि, इस प्रक्रिया में अक्सर 'हवाई हमला' भी किया जाता है, जो हम एन्टीबायोटिक के रूप में प्रयोग करते हैं। इस प्रक्रिया से शत्रु (ब्याक्टेरिया, वायरस) तो विनाश हो जाते है, परन्तु इसके साथ-साथ हमारे शरीर को कई प्रकार का क्षति भी पहुंचती है।
जाड़े के मौसम में हमारे शारीर के तापमान और बाहरी तापमान में एक बड़ा अन्तर रहता है। इस मौसम के दौरान हम जाने-अनजाने में अपने शारीरिक तापमान का अनावश्यक क्षय करते रहते हैं, जबकि शारीरिक तापमान के क्षरण से हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक मात्रा में क्षीण हो जाती है, जिस कारण जाड़े में हम अनेक बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं।
(2) " बातों-बातों में हमलोग कहते हैं ठन्ड लग गयी है "
पर ठन्ड लगती नहीं है बल्कि हम लोग इसको गले लगाते हैं।
कई बार असावधानी या लापरवाही के कारण बीमार होने पर लोग अकारण ही ठण्ड को दोषी ठहराते हैं। शरीर के कुछ विशेष अंगों से ताप (गर्मी) अपेक्षाकृत अधिक रूप से निकलता है जैसे कि हमारी गर्दन, गला व सिर, जहां से शरीर का लगभग दो तिहाई (2/3) ताप निकल जाता है। इसी कारण प्रकृति ने शारीरिक तापमान के क्षरण के बचाव में उसको बालों से (दाड़ी और सिर के बाल के रूप में) ढक दिया है।
सभ्यता के विकास के साथ-साथ हम लोग बालों को काटकर छोटे करने का प्रथा अपनाया है, परन्तु इससे ढके रहना अत्यन्त आवश्यक है वरना शरीर का ताप जब घटने लगता है तो तापमान के बचाव में शरीर में भीषण संकुचन प्रारम्भ हो जाता है और इसका प्रभाव धमनियों व शिराओं पर संकुचन के रूप में पढ़ता है जिस कारण खून का आवागमन प्रभावित होने लगता है और परिणामस्वरूप हृदयाघात और लकवा जैसे प्राणांतक व्याधियां सामने आ जाते है।
आखिर में हमारा सभी पाठकों से अनुरोध है कि P.H.D नीति अपनाये - P.H.D यानी "Preserve your body Heat, don't Dissipate".
उपसंहार : शरीर का तापमान एवं शरीर के जैवरसायनिक ऊर्जा का सम्पर्क इतना घनिष्ट है कि इनके असंतुलन से शरीर को कितना नुकसान हो सकता है ये ध्यान में रख कर इस लेख का शीर्षक "क्लीनिकल थर्मोडायनामिक्स (Clinical Thermodynamics)" मुझे उपयुक्त लगा। इस विषय में अपना अभिमत अवश्य व्यक्त करें।
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